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कहानी : वधस्थल से छलाँग (2)

सूर्यनारायण जी भयभीत लग रहे थे. बार-बार लिफ्टवाले दरवाजे की ओर देख रहे थे. सम्पादक जी की अनुपस्थिति में शायद अपने को असुरक्षित महसूस कर रहे थे. बीच-बीच में वह तिवारी को देखने की कोशिश करते, पर उससे आँखें न मिल जाएँ इस भय से उसे भर आँख देख नहीं पा रहे थे.

सम्पादक जी आये. अपने चैम्बर में गए. बहुत तेजी से रामप्रकाश तिवारी उठा और उनके पीछे-पीछे चैम्बर में घुस गया. कुछ देर बाद जब सम्पादक जी चिल्लाये, उनके चैम्बर के सामने भीड़ लग गई. तिवारी ने क्या कहाµयह तो किसी ने नहीं सुना, पर सम्पादक जी की तेज आवाज सब तक पहुँच रही थी.

”...पुलिस नहीं पहुँची थी वहाँ, इसका मतलब यह नहीं होता कि पुलिस के स्टेटमेंट में बगैर आप क्राइम रिपोर्ट फाइल करके चले जाएँ. क्राइम रिपोर्ट के लिए घटना से ज्यादा महत्व तथ्य को होता है, जो पुलिस के पास मिलता है. समझे आप... पहले पत्राकारिता सीखिये, फिर जवाब तलब कीजिएगा... और आपने हिम्मत कैसे की मुझसे...सम्पादक से जवाब तलब करने की? घटना की रिपोर्ट करते हुए आप पत्राकार नहीं, उस लड़की के आशिक हो गए हैं... आपका काम विक्टिम का पक्ष लेना नहीं है... जाइये,... पहले जाकर इस कांड के तथ्यों को खोजिये...जाइए,...जल्दी जाइए यहाँ से... सड़ चुके हैं आप... बदबू दे रहे हैं आप...“

रामप्रकाश तिवारी बाहर निकला. हम सब बेहद उत्तेजित थे. हमारी उत्तेजना को अँगूठा दिखाते हुए बिना एक शब्द बोले या बिना हमारी ओर देखे वह दफ्तर से बाहर निकल गया.

कल की घटना पर उसकी रिपोर्ट किल कर दी गई थी. सुबह अखबार देखकर सबको यह पता चल गया था. खबर पूरी तरह बदल गई थी. खबर में कोतवाली के थाना इंचार्ज का बयान था कि एक लड़की को बीच चैराहे पर काॅलेज के कुछ मनचले छात्रों ने छेड़ने की कोशिश की, पर पुलिस के पहुँचते ही वे भाग खड़े हुए. लड़की को पुलिस संरक्षण में उसके घर पहुँचा दिया गया.

रामप्रकाश तिवारी लिफ्ट से नीचे नहीं उतरा. वह सीढ़ियों से उतरकर जाने कहाँ चला गया. रमेश वर्मा नीचे जाकर ढूँढ़ आया, पर वह मिला नहीं. यूनियन की तत्काल बैठक हुई. तिवारी के साथ हुए अपमान भरे व्यवहार पर हम सबने आँसू बहाए. तय किया गया कि मैनेजमेंट को एक विरोध-पत्रा भेजा जाए.
रामप्रकाश तिवारी सप्ताह भर गायब रहा. मैं इस बीच कई बार उसके कमरे तक गया. वह मिला नहीं. यह कोई नयी बात नहीं थी. ऐसा अक्सर होता था. अचानक अदृश्य होते हुए भी अपनी उपस्थिति का एहसास बनाये रखना उसकी विशेषता थी. उसने दफ्तर को कोई सूचना नहीं दी थी. सात दिनों तक गायब रहने के बाद वह पे डे के दिन कैश सैक्शन में प्रकट हुआ. सम्पादक जी ने नियमतः सात दिनों का वेतन काट लेने का आदेश दिया था. वेतन लेकर जब वह चैथे फ्लोर पर आया, काफी मस्त दिख रहा था. सीधे सूर्यनारायण जी की मेज के सामने जाकर बैठ गया.

”अरे तिवारी प्रभु! कहाँ रहे इतने दिनों.“ सूर्यनारायण जी ने पूछा.
”ऐसे ही जरा घूम-टहल रहा था.“ बेहद इत्मीनान के साथ उसने कहा. जेब से कुछ पन्ने निकालकर उनके सामने रखते हुए बोला, ”बड़े भाई, यह एक रिपोर्ट है. सम्पादक जी तक भिजवा देंगे.“

रामप्रकाश तिवारी अब हमारे बीच में था. अधिकांश लोग उससे बातें करना चाहते थे. पूछना चाहते थे कि वह अचानक क्यों गायब हो गया? पर चाहकर भी कोई पूछ नहीं पा रहा था. सम्पादक जी अपने चैम्बर में थे.
मेरी इच्छा हो रही थी कि तिवारी को अपनी बाँहों में भर लूँ... उसके गले लगकर खूब रोऊँ. इन सात दिनों में जिस तरह उसके लिए आकुल रहा, उसका कारण तलाश पाना मेरे लिए मुश्किल था. मैं स्वयं से सवाल करता रहा कि आखिर इतना बेचैन क्यों हूँ मैंने मैं इन सात दिनों में निरन्तर आकुल और असहाय होता गया था. मैं अपने को नियन्त्रिात किये बैठा था. एक बार यह भी इच्छा हुई कि उठँू और एक जोरदार तमाचा तिवारी के गालों पर जड़ते हुए पूछूँ कि कहाँ गायब था मरदूद! पर मैं ऐसा कुछ भी नहीं कर पाया. अपनी कुर्सी से उठा और उसकी बाँह पकड़ते हुए धीरे से बोला, ”चल, नींबूवाली चाय पीते हैं.“

हम दोनों नीचे आये. चाय पीकर निरुद्देश्य सड़क किनारे खड़े होकर आने-जानेवालों को घूरते रहे. मेरे भीतर तिवारी के लिए लाड़ उमड़ रहा था कि वह सबकुछ करूँ जो तिवारी को सुख दे सके,... जो तिवारी के लिए इच्छित हो. मैंने उससे कहा, ”दोस्त. तू शादी कर ले.“

वह मुस्कुराया. मैंने फिर कहा, ”मेरी बातों को हँसी में मत टाल... मैं सीरियस हूँ. शादी कर ले, तेरे भीतर का हाहाकार थोड़ा थम जाएगा.“
”क्या तेरे भीतर का हाहाकार थम गया शादी के बाद...“ तिवारी ने प्रश्न किया.
मैं निरुत्तर था. फिर उसने स्वयं जवाब दिया, ”शादी करने से हाहाकार नहीं थमता...! नहीं थमता दोस्त... अगर ऐसा होता तो सारे शादी-शुदा लोग सुखी और निश्चिन्त होते.“
”पर एक डायवर्जन तो मिलता है.“ मैंने तर्क दिया.

”मेरे भीतर कोई हाहाकार मचा हो, तब तो उसे डायवर्जन दूँ. कोई हाहाकार नहीं है. यही तो ट्रेजेडी है कि कहीं कोई हाहाकार नहीं है. तू मेरे चिन्ता छोड़. चल, ऊपर चलते हैं.“ उसने मेरी चिन्ता, मेरे सोच और दुखों पर पानी छोड़ दिया.

हम चैथे फ्लोर पर पहुँचे. सूर्यनारायण जी ने सूचना दी कि सम्पादक जी ने रामप्रकाश तिवारी को बुलाया है. वह सम्पादक जी के चैम्बर में गया. उसके जाते ही लोगों के कान कान खड़े हो गए. किसी अशोभन क्षण का सन्देह मन के भीतर जाग उठा. सब सहमे हुए प्रतीक्षा कर रहे थे.

कुछ ऐसा ही घटित भी हुआ. सम्पादक जी चीखने लगे. उनकी आवाज सवेरा हाउस के चैथे फ्लोर पर बैठे सवेरा टाइम्स के पत्राकारों पर प्रक्षेपास्त्रों की तरह गिर रही थी.

”तुमने मुझे क्या समझ रखा है?... मैं तुम्हारी नस-नस पहचानता हूँ. साही हूँ मंै... कँटीला साही हूँ. मेरी देह में काँटे ही काँटे हैं. इन्हीं काँटों के बल पर राजनीति के माफिया सरदारों की भीड़ में निडर घूमता हूँ. समझे तुम...? मुझसे टकरानेवाला लहूलुहान हुए बिना नहीं रह सकता. मैं तुम्हें बरबाद कर दूँगा. निकल जाओ मेरे चैम्बर से,... तुम बदबू दे रहे हो... भागो यहाँ से...“

रामप्रकाश तिवारी बाहर निकला. हम सबके बीच से गुजरते हुए सूर्यनारायण जी की मेज के सामने बैठ गया. हम सब पिछले दिनों की तरह उत्तेजित थे. रमेश वर्मा झटके से सम्पादक जी के चैम्बर में घुसा.
”आपका यही रवैया रहा तो अखबार बन्द हो जाएगा.“ रमेश उत्तेजना से भरा हुआ था.
”बन्द हो जाये, पर मैं ऐसे लोगों को बरदाश्त नहीं कर सकता.“
”अखबार बन्द हुआ तो आप सम्पादक नहीं रह जाएँगे.“
”मेरी फिक्र छोड़ो. मैं हवाई जहाज पर घूमता हूँ. अखबार बन्द होने पर तुम लोग अपनी बीवियो ंके साथ दूसरों के घर घूमते फिरोगे.“
”आप अपनी भाषा बदलिये... यही है पत्राकारिता की भाषा?“ रमेश चीखा.
”मुझे भाषा की तमीज मत सिखाओ. जिन दिनों तुम्हारी नाक से नेटा-पोटा बहता था, उन दिनों तुम्हें लिखना सिखाया है मैंने. पैदा किया है तुम्हें पत्राकारिता की दुनिया में... पर साँप हूँ मैं. अपने ही अंडों को फोड़कर खा सकता हूँ... मैं तुम्हें खा जाऊँगा. जो जी में आये कर लो...लूूले-लँगड़ों की यूनियन से नहीं डरता मैं.“

रमेश बाहर निकल आया. तत्काल बैठक हुई. बैठक में यह निर्णय लिया गया कि कल से कलमबन्द हड़ताल. रामप्रकाश तिवारी भी बैठक में था. उसने इस निर्णय का विरोध किया. बोला, ”हम सम्पादक जी की इच्छानुसार काम करने लगे हैं. वे चाहते हैं कि हम हड़ताल करें क्योंकि मैनेजमेंट भी यही चाहता है. मैनेजमेंट प्रादेशिक संस्करणों को बन्द करना चाहता है. हमारी हड़ताल से उन्हें मौका मिलेगा. हम सब जान रहे हैं कि मालिकों के आपसी बँटवारे के बाद हम जिसके हिस्से में हैं, वह अपना व्यवसाय बदलना चाहता है. सम्पादक जी को इसी काम के लिए यहाँ भेजा गया है.“
रामप्रकाश तिवारी की बातों में दम था. हड़ताल का निर्णय आपसी बहस-मुबाहिसों के बाद स्थगित हुआ और एक तीखा विरोध’पत्रा दिया जाना फिर तय किया गया.

सम्पादक जी और तिवारी के बीच आज जो भी हुआ, उसका कारण वे तथ्य थे, जिनकी खोज के लिए सप्ताह भर पहले स्वयं, सम्पादक जी ने उसे उकसाया था. बीच चैराहे पर लड़की की साड़ी खोलनेवाले गुंडे जिसके इशारे पर आये थे, रामप्रकाश तिवारी ने साक्ष्य के साथ उनका पता लगा लिया था. इसी ताकतवर आदमी की पैरवी के बल पर सम्पादक जी सवेरा टाइम्स के सम्पादक बने थे. प्रदेश की राजनीति के इस शीर्ष व्यक्तित्व के पुत्रा ने बहुमंजिली इमारतों के निर्माण का धन्धा शुरू किया था. थोड़ी-सी जमीन खरीदकर अगल-बगलवालों को आतंकित किया जाता था. लोग अपनी जमीन औन-पौने दाम बेचकर पीछा छुड़ाते और इमारत की नींव पड़ जाती. इसी प्रक्रिया में उस लड़की का बाप आड़े आ गया था. उस बूढ़े के जीवन का एक ही सपना था. रिटायरमेंट के बाद अपना मकान बनवाने का सपना. सो वह अड़ गया था. इस कांड का एकमात्रा अदना-सा उद्देश्य था कि वह अपनी जमीन का टुकड़ा भयभीत होकर बेच दे. साक्ष्यों के साथ तथ्यों को रिपोर्ट में लिखते हुए रामप्रकाश तिवारी अपनी औकात भूल गया था. वह साँप के बिल में हाथ डाल बैठा था.

सम्पादक जी लौट आये थे. उन्हें अचानक दिल्ली जाना पड़ा था. मुख्य सम्पादक ने इस्तीफा दे दिया था. अन्य संस्करणों के स्थानीय सम्पादकों की चेयरमैन के साथ बैठक थी. गए थे दो दिनों के लिए और सप्ताह भर जमे रहे. उनकी अनुपस्थिति के दौरान जो कुछ हुआ उसका विवरण गैरजरूरी है. फिर भी मात्रा सूचना के लिए आपको बता दूँ कि इस बीच अखबार ने तीस हजार की प्रसार संख्या के घाटे में से दस हजार का घाटा पूरा किया. कुछ साथियों ने सूर्यनारायण जी पर डोरे डाले. उन्हें फाँसा और दारू पिला दी. दारू के नशे में उन्होंने सीना ठोंकते हुए दावे के साथ सूचना दी कि इस बार सम्पादक जी कुछ लोगों के तबादले और कुछ लोगों की विदाई का सन्देश लेकर लौटेंगे. सूची साथ लेकर गए हैं.

दिल्ली से वापसी के बाद सम्पादक जी पहले की अपेक्षा गम्भीर और अबूझ लग रहे थे. उन्होंने रामप्रकाश तिवारी को अपने चैम्बर में बुलाकर कहा कि वे प्रदेश के माफिया सरदारों, अपराधियों के बीच हड़कम्प मचा देना चाहते हैं. इन दिनों अपहरण की घटनाओं में तेजी आयी थी. उन्होंने तिवारी को निर्देश दिया, ”एक भी अपहरण की घटना छूटने न पाए... खोजी रपटें तैयार कीजिये. अखबार की बिक्री पर नजर नहीं रखते हैं आप लोग. नजर रखिये, नजर.“

रामप्रकाश तिवारी चैम्बर से बाहर निकला. सब उसे उत्सुकता से निहार रहे थे. तिवारी पहली बार बिना किसी शोर के निकला था. वह हम सबकी मनःस्थिति समझ रहा था. हम सब जानना चाहते थे कि उसे तबादले या निलम्बन का आदेश तो नहीं मिला. पर यह पूछने का साहस किसी में नहीं था. सूर्यनारायण जी से नहीं रहा गया. उन्होंने पूछा, ”तिवारी प्रभु! सब कुशल-मंगल तो है?“

”हाँ बड़े भाई, श्राद्ध की तिथि टल गई. आपका महाभोज टल गया... पर इसमें मेरा कोई दोष नहीं.“ तिवारी नाटकीय ढंग से मुस्कुराते हुए सूर्यनारायण जी की मेज के सामने खड़ा था. उसकी बातों पर जोरदार ठहाका लगाा. सवेरा हाउस के चैथे फ्लोर पर अर्साबाद पाहुन की तरह हँसी की आवक हुई थी.
शाम हो चुकी थी. सड़क रोशनी से जगमगा रही थी. रामप्रकाश तिवारी मस्ती के मूड में था. मेरी बाँह पकड़ मुझे खींचे लिये चला जा रहा था. हम दोनों ‘हैव मोर’ बार के सामने से गुजर रहे थे. यह तिवारी का पसन्दीदा बार था. छोटा और अपेक्षाकृत सस्ता. खास बात यह कि इस बार का मालिक तिवारी को ‘कवि जी’ कहकर बुलाता और बार में घुसते ही हाल-समाचार पूछता था. पर तिवारी बार में नहीं घुसा. मैंने चैंककर पूछा, ”क्या बात है. घसीटते हुए कहाँ लिये जा रहा है.“
”लस्सी पीएँगे...लस्सी.“ वह बोला.
”लस्सी!“ मैं आसमान से गिरा.
”हाँ, लस्सी... फिर मगही पान.“
”बहुत मस्ती में है तू! बात क्या है आखिर. लगता है, सम्पादक जी से चुम्मा-चाटी करके आ रहा है.“
”हाँ, आज बहुत प्यार किया उन्होंने... पर तू नहीं समझेगा. जल्दी ही, हफ्ता-दस दिनों में क्लाइमेक्स आ जाएगा.“
”मैं तेरी बातें समझ नहीं पा रहा हूँ.“

”अगर तू पहले क्लाइमेक्स समझ गया तो मजा क्या खाक आएगा.“
हम दोनों सड़क किनारे एक ठेले के पास खड़े लस्सी पी रहे थे कि तीनों दिख गईं. झूमतीं, लहरातीं, हवा में आँचल उड़ातीं,... चारों तरफ आँखें नचाकर देखती हुई तीनों स्टेशन की ओर जा रही थीं. इसके पहले कि वे हमारे सामने से गुजरें, एक कार आकर रुकी. कार से कुछ लोग उतरे. उन्होंने तीनों से बातें कीं. पहली खिलखिलाई. दूसरी ने हाथों को नचाते हुए मना किया और पहली के साथ हँसती हुई आगे बढ़ने लगी. तीसरी रुक गई थी. वह नाराज स्वर में कुछ बोल रही थी. तीनों निर्भय थीं. बीच चैक पर साड़ी खुल जाने के बाद असहाय लुढ़क जानेवाली उस लड़की से बिलकुल अलग. हम दम साधे देख रहे थे. तिवारी मन ही मन उनकी बहादुरी पर फिदा हो रहा था. उन लोगों ने तीसरी का हाथ पकड़ लिया. वह चिल्लायी. गालियाँ बकने लगी. पहली और दूसरी ने तीसरी को उलझते देखा तो वापस आ गई. इस बीच भीड़ जुट आयी थी. तीन लड़कियों के साथ बीच सड़क पर ऐसा रोचक तमाशा देखने का लोभ रोक पाना लोगों के लिए मुश्किल था. लोग मजा ले रहे थे. तीनों लड़कियाँ कार से उतरनेवालों की गिरफ्त में थीं. वे लोग तीसरी को कार में ठूँस चुके थे. पहली और दूसरी पर दबाव बढ़ रहा  था और वे छटपटा रही थीं. वे लोग तीनों को कार में बैठाकर कहीं ले जाना चाहते थे. तीनों जाने को तैयार नहीं थीं. अन्ततः उन लोगों ने पहली और दूसरी को भी गोद में उठाकर कार के भीतर ठूँस लिया. तीनों चीखती-चिल्लाती रहीं, पर कार उन्हें लेकर ट्रैफिक सिग्नल की परवाह किये बगैर चली गयी.

रामप्रकाश तिवारी की टाँगें थरथराने लगीं. उसका चेहरा सफेद हो गया. वह घबराया हुआ था. मैंने लस्सीवाले के पैसे चुकाये. तिवारी का कन्धा पकड़कर झकझोरा. उसकी चेतना वापस लौटी. हाथ पकड़कर उसे सड़क पार कराई.
हम दोनों कोतवाली पहुँचे. थाना इंचार्ज कहीं बाहर निकल रहा था. वह कई दिनों बाद मुझे देखकर चहका, पर तिवारी का सफेद चेहरा देखते ही उसने पूछा, ”क्या बात है तिवारी जी परेशान लग रहे हैं.“
”भीतर चलिए.“ मैंने कहा.

हम लोग थाना इंचार्ज की मेज के सामने बैठे थे. सारी बातें सुनने के बाद वह मुस्कुराया. बोला, ”अरे भाई, आप लोग भी गजब करते हैं. दो नम्बर की लड़कियों को लेकर इस तरह परेशान होने से काम चलेगा? स्टेशन से लेकर गांधी मैदान तक अच्छे-अच्छे घरों की पढ़ी-लिखी लड़कियाँ रात में धन्धे के लिए निकलती हैं. मन्त्राी से लेकर सन्तरी तक को औरत चाहिए... अब अगर रोक-टोक हो, तो सब जने एक रात में छटपटाकर जान दे देंगे. अब आपका ही कोई काम हो और काम करने के लिए कोई लड़की माँगे, तो आप क्या करेंगे? घर की औरतों को तो भेजेंगे नहीं. कोई दूसरा इन्तजाम ही तो करेंगे? इन्तजाम नहीं कर पाये तो सड़क से जोर जबर्दस्ती लड़की उठवाएँगे... और मैं उन तीनों को जानता हूँ. वही न, जो मजमा लगाकर गीत गाती फिरती हैं? आवारा हैं तीनों. सिपाहियों तक से दो-चार रुपया ऐंठ लेती हैं. फिर भी आप नहीं मानते, तो रिपोर्ट दर्ज कर लेता हूँ. अब आप लोगों से रोज का मिलना-जुलना है, सो बात तो रखनी ही पड़ेगी“

रिपोर्ट दर्ज करवाने के बाद हम दोनों अखबार के दफ्तर पहुँचे. रामप्रकाश तिवारी ने खबर तैयार की. सूर्यनारायण जी पेज मेक-आप करवा रहे थे. तिवारी के पास इतना धैर्य नहीं था कि वह सूर्यनारायण जी के आने तक प्रतीक्षा करे. वह सीधे सम्पादक जी के चैम्बर में घुस गया. कुछ ही मिनटों बाद सम्पादक जी गरजे, ”निकल जाओ मेरे चैम्बर से.“

इस बार का दृश्य बदला हुआ था. अपने दाएँ हाथ से रामप्रकाश तिवारी की गरदन पकड़े धकियाते हुए सम्पादक जी अपने चैम्बर से बाहर निकले. वह एक मेज से टकराया और फर्श पर गिरते-गिरते बचा. सारे लोग भौचक खड़े थे. उसकी रिपोर्ट के चिथड़े उड़ाकर फेंकते हुए सम्पादक जी बोल रहे थे, ”इसी लुच्चे आदमी की तरफदारी करते हैं आप लोग?...रंडियों के अपहरण की खबर लाये हैं...सुना आप लोगों ने? रंडियों का अपहरण. इसके पहले कभी किसी ने देखा-सुना था कि कि रंडियों का भी अपहरण होता है...? वही मजमा लगानेवाली आवारा लड़कियाँ, जिनकी खबर सिटी पेज की लीड खबर बनेगी... विकृत है... पूरी तरह पवर्टेड है यह आदमी. इसे औरत और रंडी के बीच कोई फर्क नहीं मालूम. मुझसे बहस कर रहा है कि वे भी औरतें हैं... कह रहा है कि चाहे रंडियाँ ही क्यों न हों, अगर कोई उनकी मर्जी के खिलाफ उन्हें उठाकर ले जाता है, तो  उसे अपहरण कहेंगे... मुझे अपहरण की परिभाषा सिखा रहे हैं यह... मैंने पहले ही कहा था कि मुझे साहित्यकारों और कुत्तों से नफरत है और मैं इन दोनों को अपने अखबार में नहीं देखना चाहता... तुम, दोनों हो... कवि बनते हो और कुत्ते भी निकले तुम...“

साठ फीट गुना डेढ़ सौ फीट यानी नौ हजार वर्ग फीट में फैले इस चैथे फ्लोर के दफ्तर में असहाय खड़ा रामप्रकाश तिवारी रो रहा था. हिचकियाँ फूट रही थीं. वह मुझे मेमने की तरह लग रहा था, जिसे लकड़बग्घे की तरह अपने जबड़ों में दबोचे हुए चैम्बर से बाहर लाकर सम्पादक जी ने पटक दिया था.
रोते हुए रामप्रकाश तिवारी की देह में अचानक एक जुम्बिश हुई. इसके पहले कि कोई उससे सहानुभूति दिखाने, उसे चुप कराने पहुँचे या सम्पादक जी फिर आक्रमण करें, उसने अपने को नियन्त्रिात किया. रोती हुई आँखों के आँसू भाप बनकर उड़ गए. हिचकियाँ लुप्त हो गईं. उसने चारों ओर आँखें घुमाकर देखा. मेरी आँखें उसकी आँखों से टकराईं. मैं उसकी ओर बढ़ा पर इसके पहले कि मैं या कोई उसे रोक सके, लकड़बग्धे के मुँह से छूटकर गिरे मेमने की तरह छलाँग लगाता हुआ वह बाहर निकल गया.
मैं नीचे दौड़ा. पर वह दिखा नहीं. वह लापता हो चुका था. मैं तेज कदमों से सीढ़ियाँ फलाँगते हुए वापस चैथे फ्लोर पर पहुँचा. सम्पादक जी हूपिंग कफ के मरीज की तरह हूँफ रहे थे. उन्होंने मुझे देखा और अपने चैम्बर में चले गए. वधस्थल पर खड़े भयभीत लोगों की भीड़ धीरे-धीरे बिखर गई. लोग अपने-अपनी कुर्सियों पर पीठ या मेजों पर कुहनियाँ टिकाने लगे थे.
आज सात दिन हो गए रामप्रकाश तिवारी को लापता हुए. मेरे कुछ साथियों को विश्वास है कि वह पहले की तरह वापस लौट आएगा. पर मैं जानता हूँ कि वह इस दफ्तर में नहीं लौटेगा. हाँ, शहर में लौटने से उसे कोई लकड़बग्घा नहीं रोक सकता. मुझे उसकी आवक पर पूरा भरोसा है... पर एक बात मेरे भीतर टीस मार रही है कि उस दिन, उसके जाने के बाद हम कुछ और भी कर सकते थे.

Hrishikesh Sulabhनाम: हृषीकेश सुलभ
जन्म: 15 फरवरी 1955, बिहार के छपरा (अब सीवान) जनपद के लहेजी नामक गाँव में.
कृतियाँ: ‘बंधा है काल’, ‘वधस्थल से छलांग’ और ‘पत्थरकट’ तीनों कथा संकलन एव जिल्द ‘तूती की आवाज’ में, ‘अमली’ (बिदेसिया शैली पर आधारित नाटक) माटीगाड़ी (शूद्रक रचित संस्कृत नाटक मृच्छकटिकम् की पुनर्रचना), ‘मैला आंचल’ का नाट्य रूपान्तर ‘बटोही’ (भिखारी ठाकुर के जीवन पर आधारित नाटक)
सम्पर्क: पीरमोहानी, कदमकुआँ, पटना-3

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